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धर्माचारकी प्रेरणा अन्वयार्थ-(यस्य तु) जिसके द्वारा (सुकृतं भवेत्) धर्म कार्य होगा (तेन) उसके धार्मिक भावसे (दुःखोत्पादनभूतानि) दुःखोंको पैदा करनेवाले (दुष्कर्माणि) कर्म (समन्ततः) सर्वथा (परिक्षयम् यान्ति) क्षय हो जाते हैं। ___भावार्थ-पूर्वबद्ध कर्म यदि निकाचित आदि वज्रके समान तीव्र न हो तो धार्मिक पवित्र वीतरागता सहित भावोंके प्रतापसे अपने समयके पहले ही बिना फल दिये क्षय हो जाते हैं। जिन कर्मोंके उदयसे असाता होनेवाली हो वे कर्म जडमूलसे जीर्ण होकर गिर पडते हैं । आत्माके अनुभवमें अपूर्व शक्ति है। सम्यग्दर्शनसहित धर्मका आचरण करना हमारे वर्तमान जीवनको भी दुःखोंसे रहित और सातासे पूर्ण बनाता है, भविष्यका जीवन भी कष्ट रहित तैयार होता है क्योंकि पुण्यका अधिक संचय होता है। धर्माचरणसे सुख शांति भी अनुभवमें आती है, चित्तमें संतोष रहता है, विषयकषायोंकी मन्दता होती है।
धर्म एव सदा कार्यो मुक्त्वा व्यापारमन्यतः ।
यः करोति परं सौख्यं यावनिर्वाणसङ्गमः ॥५८॥ अन्वयार्थ-(अन्यतः) दूसरे कार्योंसे (व्यापारं) व्यवहार (मुक्त्वा) हटाकर (धर्म एव) धर्मको ही (सदा) सदा (कार्यः) करना योग्य है । (यावत्) जब तक (निर्वाणसङ्गमः) निर्वाणका लाभ न हो तब तक (यः) यह धर्म (परं सौख्यं) परमानन्दको (करोति) प्रदान करता रहता है। .
भावार्थ-सदा काल इस वर्तमान जीवनको और भविष्यके जीवनको सुखदायी, साताकारी, संतोषी, क्लेशरहित बितानेका उपाय एक पवित्र जिनधर्मका आचरण है । जो मुनि या श्रावकके चारित्रको सम्यग्दर्शन सहित बिना किसी माया, मिथ्या या निदान शल्यके हर्षित मनसे विवेकपूर्वक पालता है वह वज्र समान तीव्र कर्मोदयसे यहाँ यदि आपत्तिमें भी आ जावे तो भी वस्तुस्वरूपको विचार कर धैर्यवान व निराकुल रहता है तथा साधारण पाप कर्मोंको तो वह क्षय ही कर डालता है, जिससे बहुतसा दुःख टल जाता है। आत्मानंदका लाभ तो वह सतत आत्ममननसे करता है। पुण्यका बन्ध अधिक होनेसे वह धर्मात्मा सुगतिको ही प्राप्त करता है। वहाँ भी आत्मानुभवका संस्कार जागृत करता है, सुखमय जीवन बिताता है । निर्वाणकी ओर दृष्टि लगानेवाले महात्माको जब तक निर्वाणका संगम न हो तब तक सदा ही अतीन्द्रिय आनन्दके साथ-साथ साता और संतोषका लाभ होता है । शारीरिक और मानसिक कष्टोंमें बहुत कमी होती
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