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सारसमुच्चय
जाती है । इसलिए विवेकी जीवको धर्मका सदा आचरण करना योग्य है । क्षणेऽपि समतिक्रान्ते सद्धर्मं परिवर्जिते । आत्मानं मुषितं मन्ये कषायेन्द्रियतस्करैः ॥५९॥
अन्वयार्थ - ( सद्धर्मं परिवर्जिते ) सत्य धर्मके आचरण विना (क्षणे अपि) एक क्षण भी (समतिक्रान्ते) वृथा चले जानेपर ( मन्ये) मैं मानता हूँ कि मैंने (आत्मानं ) अपनेको (कषायेन्द्रियतस्करैः ) कषाय और इन्द्रियोंके विषयरूपी चोरोंसे ( मुषितं) ठगा लिया ।
भावार्थ - ज्ञानीको धार्मिक क्रियाओंमें लगातार अपने मन, वचन, कायको ऐसा लगाये रखना चाहिए जिससे विषयोंके भाव और कषायोंके वेग अपना प्रभाव न डाल सकें । विषयकषाय आत्मिक धर्मके चुरानेवाले चोर हैं । जहाँ मनको धर्मभावशून्य पाते हैं वहाँ ही मनमें प्रवेश कर जाते हैं । अतएव जो आरम्भत्यागी श्रावक और साधु हैं उनको २४ घंटोंका समयविभाग बनाकर निरन्तर सामायिक, स्वाध्याय, धर्मचर्चा, धर्मोपदेश, धर्मभावना, ग्रन्थ-लेखनादिमें बिताना चाहिए । जो आरम्भत्यागी नहीं हैं ऐसे गृहस्थ श्रावकोंको द्रव्य कमानेके लिए और न्यायपूर्वक इन्द्रियभोग करने व शरीरको आराम देनेके लिए समयका विभाग बनाकर शेष समयको सामायिक, देवपूजा, शास्त्र- स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा, परोपकार, दान सेवा आदि शुभ कार्योंमें बिना किसी मानकी व लोभकी भावनाके बिताना चाहिए। एक क्षण भी धर्मभाव बिना वृथा न खोना चाहिए । लौकिक सर्व व्यवहारको धर्मकी रक्षा करते हुए नीति व सत्यके अनुकूल करना चाहिए । यही जीवनकी सफलता है। मतिस्तावद्यावदायुर्दृढं
तव ।
धर्मकार्ये आयुः कर्मणि संक्षीणे पश्चात्त्वं किं करिष्यसि ॥६०॥
अन्वयार्थ -(यावत्) जब तक (तव आयुः) तेरी उम्र (दृढं ) मजबूत है ( तावत्) तब तक (धर्मकार्ये) धर्मकार्यमें (मतिः) बुद्धि रखनी चाहिए । (आयुः कर्मणि) आयु कर्मके (संक्षीणे) नाश हो जानेपर (पश्चात् ) पीछे (त्वं) तू (किं) क्या (करिष्यसि ) करेगा ?
भावार्थ - कर्मभूमि मानवोंकी आयुके क्षयका कोई नियम नहीं है । बाहरी प्रतिकूल कारणके होनेपर अकालमें भी आयुकर्मकी उदीरणा हो जाती है । सर्व स्थिति कटकर आयुकर्मकी वर्गणाएँ खिर जाती हैं। इसलिए सदा ही धर्मकार्योंमें बुद्धि रखनी चाहिए, जिससे मरण कभी भी आये तो भी पछतावा न करना पडे, पुण्यकर्मके संचयको लेकर प्राणीका मरण हो ।
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