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सारसमुच्चय जरामरणरोगानां सम्यक्त्वज्ञानभेषजैः ।
शमनं कुरुते यस्तु स च वैद्यो विधीयते ॥४३॥ अन्वयार्थ-(यः तुः) जो कोई (सम्यक्त्वज्ञानभेषजैः) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूपी औषधियोंसे (जरामरणरोगानां) जरामरणरूपी रोगोंको (शमनं कुरुते) दूर करता है (स च) वही (वैद्यः) वैद्य (विधीयते) कहा जाता है।
भावार्थ-शरीर क्षणभंगुर है । इसके रोगोंको शांत करनेवाला जडवैद्य है। यथार्थ तत्त्वसे वैद्य नहीं है। सच्चा वैद्य वही है जो आत्मज्ञानकी
औषधि सेवन करके अपने भी अनादि कालके पीछे लगे हुए जन्मजरामरणरूपी रोगोंको दूर करता है और दूसरोंको भी आत्मज्ञानकी औषधि बताकर उनके रोग मिटाता है । जन्मजरामरणके समान कोई भी भयंकर रोग नहीं है। इनके दूर करानेकी दवा रत्नत्रय धर्म है। उनमें भी सम्यग्दर्शन सहित आत्मज्ञान प्रधान है। इसका प्रयोग करनेवाला ही तत्त्वज्ञानी वैद्य है।
जन्मान्तरार्जितं कर्म सम्यक्त्वज्ञानसंयमैः ।
निराकर्तुं सदा युक्तमपूर्वं च निरोधनम् ॥४४॥ अन्वयार्थ-(सम्यक्त्वज्ञानसंयमैः) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्रके द्वारा (जन्मान्तरार्जितं) जन्म जन्ममें संचित किये हुए (कर्म) कर्मोंको (सदा) नित्य ही (निराकर्तु) दूर करना (च अपूर्व) तथा आगामी आनेवाले कर्मोंको (निरोधनम्) रोकना (युक्तं) योग्य है । ___ भावार्थ-बिना भोगे कर्मोंकी स्थिति व अनुभाग शक्ति घटाकर आत्माके प्रदेशोंसे छुड़ा देना अविपाक निर्जरा है तथा नवीन आनेवाले कर्मोंको न आने देना संवर है । संवर व निर्जरा दोनोंका उपाय आत्मध्यान है। इसीको निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी एकता कहते हैं । आत्मध्यानकी अग्निसे कर्म जलते हैं व नवीन नहीं आते । अतएव सम्यग्दर्शनके प्रतापसे आत्माको शुद्ध कर लेना योग्य है। क्योंकि इसके बिना ज्ञान व चारित्र कुज्ञान व कुचारित्र हैं।
सम्यक्त्वं भावयेत् क्षिप्रं सज्ज्ञानं चरणं तथा ।
कृच्छात्सुचरितं प्राप्तं नृत्वं याति निरर्थकम् ॥४५॥ अन्वयार्थ-(क्षिप्रं) शीघ्र ही (सम्यक्त्वं) सम्यग्दर्शनकी, (सज्ज्ञान) सम्यग्ज्ञानकी (तथा चरणं) तथा सम्यकुचारित्रकी (भावयेत) भावना करनी योग्य
पाठान्तर-१. रोगाणां । २. संयमं ।
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