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सारसमुच्चय किया जाएगा तो जो स्वरूपाचरण चारित्ररूपी रत्न सम्यग्दर्शनके साथ प्राप्त हुआ है वह भी चला जायेगा, तथा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानरूपी रत्न भी चले जायेंगे । रत्नत्रयको गँवाकर दीर्घकालके लिए पछताना पडेगा।
शीलरत्नं हतं यस्य मोहध्वान्तमुपेयुषः ।
नानादुःखशताकीर्णे नरके पतनं ध्रुवम् ॥१६॥ अन्वयार्थ-(मोहध्यांतं उपेयुषः) मोहरूपी अन्धकारसे ग्रसित (यस्य) जिस किसी प्राणीका (शीलरत्न) चारित्ररूपी रत्न (हतं) नष्ट हो गया उसका (ध्रुवम्) निश्चयसे (नानादुःखशताकीणे) अनेक दुःखोंसे पूर्ण (नरके) नरकमें (पतनं) पतन होगा।
भावार्थ-जो कोई शरीर व इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त होकर अपनी आत्मरुचिको व अतीन्द्रिय सुखकी श्रद्धाको गँवा बैठता है, उसका चारित्र मलिन हो जाता है, वह स्वार्थमें अन्धा हो जाता है। रात्रिदिन हिंसानंदी, मृषानंदी, चौर्यानंदी, परिग्रहानंदी रौद्रध्यानमें फँसकर अशुभ भावोंसे नरकायुको बाँधकर महान कष्टोंके समूहसे भरे हुए नरकोंके बिलोंमें पडकर दीर्घ आयु तक महान संकट भोगता रहता है।
यावत् स्वास्थ्यं शरीरस्य यावच्चेन्द्रियसम्मदः ।
तावद्युक्तं तपः कर्तुं वार्धक्ये केवलं श्रमः॥१७॥ अन्वयार्थ-(यावत् च) जब तक (शरीरस्य) शरीरकी (स्वास्थ्यं) तन्दुरस्ती है (यावत् च) और जब तक (इन्द्रियसम्मदः) इन्द्रियोंमें प्रसन्नता है (तावत) तब तक (तपः) तप करना (युक्तं) उचित है । इच्छाओंका रोकना (वार्धक्ये) वृद्धावस्था होने पर (केवलं) मात्र (श्रमः) खेद होगा।
भावार्थ-विवेकी मनुष्यका कर्तव्य है कि मानवगतिको आत्मोन्नतिका मुख्य साधन समझकर बुढ़ापा आनेके पहले ही जब तक शरीरका स्वास्थ्य अच्छा है व पाँचों इन्द्रियोंमें बल है, अंगोपांगमें शक्ति है-अशक्ति नहीं है तब तक आत्मध्यानका अभ्यास कर लेना चाहिए । युवावयको विषयोंके जालमें फँसाकर यह न सोचे कि जब बूढ़ा होऊँगा तब तप कर लूँगा। बुढ़ापेमें इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती है, शरीर निर्बल हो जाता है, भूख-प्यास शीघ्र सताती है उस समय तपके लिए उद्यम करेगा तो भी नहीं कर सकेगा, मनको केवल खेद होगा। इसलिए अवसर नहीं खोना चाहिए। मरणके आनेका कोई समय नियत नहीं है। जितनी जल्दी हो आत्म-शुद्धिका प्रयत्न करना चाहिए।
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