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आत्माके वैरी विषय-कषाय एते हि रिपवो चौरा धर्मसर्वस्वहारिणः ।
एतैर्बभ्रम्यते जीवः संसारे बहुदुःखदे ॥२३॥ अन्वयार्थ-(कामः) विषयोंकी इच्छा (क्रोधः) क्रोध (तथा लोभः) और लोभ (रागः) रागभाव (द्वेषं च) व द्वेषभाव (मत्सरः) ईर्ष्याभाव (मदो) जाति कुल बल विद्या तपादिकका घमंड (माया) मायाचार (तथा मोहः) और मोह, (कन्दर्पः) कामसेवनकी इच्छा (दर्प एव च) तथा अहंकार भाव (एते) ये (रिपवः) शत्रु ही निश्चयसे (धर्मसर्वस्वहारिणः) धर्मरूपी सर्व धनको हरनेवाले (चौराः) चोर हैं । (एतैः) इन्हींके कारण (जीवः) यह प्राणी (बहुदुःखदे) बहुत दुःखदायक (संसारे) इस संसारमें (बंभ्रम्यते) भ्रमण किया करता है।
भावार्थ-इस आत्माके स्वाभाविक धर्म रत्नत्रयभावको या ज्ञानदर्शन सुख शांति वीर्यादिको नाश करनेवाले विषय-कषाय हैं व मिथ्यात्वभाव है। मोहनीयकर्मके कारण काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्षा आदि अशुद्ध भाव सदा रहते हैं जिनके रहते हुए आत्मिक वीतराग परिणति मानो लुप्त हो जाती है। इसलिए ये सब औपाधिक भाव आत्माके महान वैरी, आत्मधनके हरनेवाले चोर हैं व इन्हींके कारण तीव्र कर्मोंका बन्ध होता है, जिनके फलसे यह प्राणी इस भयानक दुःखदायी संसारमें दीर्घकालसे जन्म मरण करता हुआ चला आ रहा है। इसलिए इस मोहके परिवारको नष्ट करना ही उचित है।
रागद्वेषमयो जीवः 'कामक्रोधवशे गतः ।
लोभमोहमदाविष्टः संसारे संसरत्यसौ ॥२४॥ अन्वयार्थ-(असौ) यह (जीवः) प्राणी (रागद्वेषमयः) रागी द्वेषी होकर (कामक्रोधवशे गतः) काम व क्रोधके वशमें प्राप्त होता हुआ (लोभमोहमदाविष्टः) तथा लोभ, मोह और घमण्डसे घिरा हुआ (संसारे) इस संसारमें (संसरति) भ्रमण करता है।
भावार्थ-क्रोध, मान, माया, लोभ इस चार कषायोंके उदयके आधीन होकर यह संसारी प्राणी अपने आत्मबलको प्रकट न कर सकनेके कारण विकारी, मोही, रागी, द्वेषी होता हुआ तदनुकूल मनमें विचार करता है, वैसी ही वचनकी प्रवृत्ति करता है, वैसे ही शरीरकी क्रिया करता है । इस अशुभ प्रवृत्तिके कारण तीव्र पाप-कर्म बाँधकर इस संसारमें जन्ममरण करता हुआ भ्रमता है। ये कषाय ही जीवके शत्रु हैं।
पाठान्तर-१. कामक्रोधवशं ।
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