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सारसमुच्चय (मोहमहार्गलाम्) मोहरूपी महान फाटकको (भित्वा) तोडकर (सचारित्रसमायुक्तः) जो सम्यक्चारित्रमें लवलीन है और (मोक्षपथे) मोक्षके मार्गमें (स्थितः) जमा हुआ है (शूरो) वही वीर महात्मा है।
' भावार्थ-जैसे बंद किवाडोंमें भीतरकी वस्तु नहीं दीखती है वैसे ही मिथ्यात्वकी आड जब तक रहती है तब तक अपने आत्माका दर्शन नहीं होता है। इसलिए वही वीर योद्धा है जो इस मिथ्यात्वकी आडको तोडकर आत्मदर्शी सम्यक्दृष्टि हो जाता है और जगतके स्नेहके फंदेको छेदकर वैराग्यवान हो जाता है। ज्ञानवैराग्यसे पूर्ण होकर जो सम्यक्चारित्रको पालता हुआ व्यवहार रत्नत्रयके आलम्बनसे स्वात्मानुभवरूपी निश्चय रत्नत्रयमें दृढतासे जमा रहता है वही सच्चा वीर है।'
अहो मोहस्य माहात्म्यं विद्वांसो येऽपि मानवाः । मुह्यन्ते तेऽपि संसारे कामार्थरतितत्पराः॥२१॥
अन्वयार्थ- (येऽपि) जो कोई भी (मानवाः) मनुष्य (विद्वांसः) विद्वान हैं (तेऽपि) वे भी (कामार्थरतितत्पराः) काम व धनके स्नेहमें तत्पर रहते हुए (संसारे) इस संसारमें (मुह्यन्ते) मोहित हो जाते हैं यह (अहो) खेद एवं आश्चर्यजनक (मोहस्य माहात्म्यं) मिथ्याभावरूप मोहकी महिमा है ।
__ भावार्थ-शास्त्रज्ञानरहित, तत्त्वज्ञानरहित मूढ़ प्राणी यदि धनमें व विषयोंकी इच्छाओंमें व कुटुंबमें मोहित होकर आत्महित न करे तो कुछ खेद व आश्चर्यकी बात नहीं मानी जा सकती, परन्तु जो मानव विद्वान है, शास्त्रज्ञ हैं, तत्त्वज्ञानी हैं, वे यदि गृहस्थमें मोही होकर रातदिन धन कमानेमें तथा इन्द्रियोंकी इच्छा पूर्ण करनेमें लगे रहे तो बड़े खेद व आश्चर्यकी बात है। मिथ्यात्वका अन्धेरा जब तक दूर नहीं होता है तब तक सच्चा ज्ञान व वैराग्य नहीं होता है, अतएव इस मिथ्यात्वको दूर करना ही श्रेयस्कर है।
आत्माके वैरी विषय-कषाय कामः क्रोधस्तथा लोभो रागद्वेषश्च मत्सरः ।
मदो माया तथा मोहः कन्दर्पो दर्प एव च ॥२२॥ १. श्लोक २० के पश्चात् सिद्धांतसारादिसंग्रहके अनुसार एक श्लोक इस प्रकार है :
कर्मणा मोहनीयेन मोहितं सकलं जगत् ।
धन्या मोहं समुत्सार्य तपस्यन्ति महाधियाः ॥१॥ अर्थ-इस मोहनीय कर्मने सकल जगतको मोहित किया है परन्तु वे महाज्ञानी पुरुष धन्य है जो मोहको सम्यक् प्रकारसे हटाकर तपकी आराधना करते हैं।
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