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आत्महितकी आवश्यकता अनन्तानुबंधी चार कषाय और मिथ्यात्व कर्मका उपशम हुआ, तब कहीं प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनका लाभ हुआ । सम्यग्दर्शनके प्रकाश बिना शास्त्रोंके द्वारा तत्त्वोंका ठीक-ठीक परिज्ञान होनेपर भी अपने शुद्ध आत्मस्वरूपकी प्रतीति नहीं हो पाती है। सम्यक् दर्शनके प्रकट होते ही सर्व ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। आचार्य कहते हैं कि जिस सम्यग्ज्ञानरूपी महान रत्नको अनादिकालसे अब तक नहीं पाया था वह अब बड़े भारी शुभ योगसे मिल गया है। इस सम्यग्-ज्ञानको महारत्नकी उपमा इसीलिए दी है कि तीन लोककी सम्पत्ति भी इसके सामने तुच्छ है, तथा यह रत्न ऐसा प्रकाशशील है कि इसके उजालेमें अपना शुद्धात्मा भिन्न दीखता है और रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तथा शरीरादि नोकर्म व सर्व ही अपने आत्मासे बाहरके चेतन व अचेतन पदार्थ भिन्न दीखते हैं । इसीके प्रकाशसे स्वानुभवरूपी सीधे मोक्षमार्गका पता लगता है, जिसपर चलनेसे बहुत शीघ्र निराकुल मोक्षधाममें पहुँच सकता है और भयानक संसारके जन्म, मरण, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग-जनित व तृष्णाकी दाहसे प्राप्त असहनीय दुःखोंसे छूट सकता है। ऐसे अपूर्व सम्यग्ज्ञानको पाकर हे भाई ! यदि तू फिर प्रमाद करेगा, निश्चय तथा व्यवहार सम्यक्चारित्रका पालन नहीं करेगा और पाँचों इन्द्रियोंके भोगोंमें लुभाकर जीवन बिता देगा तो अन्तमें पछताएगा तथा भव-भवमें कष्ट उठाएगा और जब याद आ जायेगा तब पछतावा करेगा कि हा ! मैंने उत्तम अवसरको वृथा खो दिया। काचखंड़के समान विषयसुखके लोभमें रत्नसमान आत्मानन्दको फेंक दिया ।
__ आत्मानं सततं रक्षेज्ज्ञानध्यानतपोबलैः ।
प्रमादिनोऽस्य जीवस्य शीलरत्नं विलुम्पते ॥१५॥ अन्वयार्थ-अतएव (आत्मानं) अपने आत्माको (ज्ञानध्यानतपोबलैः) शास्त्रज्ञान, आत्मध्यान तथा उपवास ऊनोदरादि तपके बलसे (सततं रक्षेत्) सदा विषयकषायोंसे रक्षित रक्खे क्योंकि (अस्य) इस (प्रमादिनः) प्रमादी आलसी (जीवस्य) जीवका (शीलरत्न) चारित्ररूपी शीलरत्न (विलुम्पते) लुप्त-विनष्ट हो जाता है। ___भावार्थ-जब सम्यग्ज्ञानरूपी अत्यन्त दुर्लभ महारत्न हाथ लग गया है तब विवेकी मानवका कर्तव्य है कि वह शास्त्राभ्यास करता रहे, आत्मध्यान बढ़ाता रहे, तपकी साधना करता रहे, जिससे विषय-कषाय निर्बल हो जावें, रागद्वेष दूर होते जावें, वीतरागविज्ञानमयी भावकी बढ़ती होती जावे । इसी उपायसे आत्माकी इस भयानक संसारसे रक्षा हो सकेगी। यदि आलस्य
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