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आत्महितकी आवश्यकता
( चेतो-रत्नं) आत्मारूपी रत्न (विमलतां याति ) निर्मल हो जावे ( तथा च ) उस प्रकारसे ही (ज्ञानसद्भाव भावितं ) ज्ञानकी यथार्थ भावना करते हुए ( सत्तपः) सच्चा तप (कार्यं) करना योग्य है ।'
भावार्थ- किसी खानमें रत्नपाषाण था, उसका मिलना कठिन था । जब हाथमें आ गया तो जौहरी उसको बड़े यत्नसे रखकर बड़े भाव व परिश्रमसे उसके मैलको दूर करके उसको चमकता हुआ रत्न बना देता है और अटूट धन कमाता है । वैसे ही आत्माके स्वरूपका ज्ञान होना बहुत कठिन था । जिस किसी ज्ञानीको आत्मज्ञानरूपी रत्न प्राप्त हो गया उसको उचित है कि जिस उपायसे यह आत्मा शीघ्र ही कर्ममैलसे छूटकर शुद्ध हो सके उसी उपायसे इसे शुद्ध करना चाहिए। अपनी शक्तिको न छिपाकर आत्माके शुद्ध स्वरूपकी भावना भाते हुए जिनागमके अनुसार यथार्थ तप करना चाहिए जिससे परिणामोंमें आनंद रहे, शरीरकी व इंद्रियसुखकी आसक्ति दूर हो व मन वशमें रहे । उपवास, ऊनोदर, रस-त्याग, एकांत सेवन आदि बारह प्रकार तपोंका प्रेमसहित अभ्यास करना चाहिए और आन्तरिक इच्छा-शक्ति तथा कषाय- शक्तिका दमन करना चाहिए । आत्मध्यान द्वारा आत्मानुभवकी प्राप्ति पर लक्ष्य रखना चाहिए । यही सच्चा तप है ।
नृजन्मनः फलं सारं यदेतज्ज्ञानसेवनम् । अनिगूहितवीर्यस्य संयमस्य च धारणम् ॥७॥
अन्वयार्थ-(नृजन्मनः) मानव जन्मका ( एतत् सारं फलं) यही सार फल है. (यत्) जो ( अनिगूहितवीर्यस्य) अपनी शक्तिको न छिपा कर (संयमस्य धारणम्) संयमको धारण किया जावे (च) और (ज्ञानसेवनम् ) आत्मज्ञानकी सेवा की जावे ।
भावार्थ - मानव-जन्म पाना बड़ा दुर्लभ है । संयमका साधन, उत्तम धर्मध्यान व शुक्लध्यान इसी जन्मसे हो सकता है । नरक, पशु व देवगतिमें नहीं हो सकता है। इसीलिए इस अपूर्व अवसरको विषयकषायोंमें नहीं खोना चाहिए - इसको सफल कर लेना चाहिए । सफलता तब ही होगी जब संयमको धारणकर आत्मानुभवका अभ्यास किया जायेगा । यदि शक्ति हो तो सर्वपरिग्रहका त्याग कर निर्ग्रथ साधु हो महाव्रतोंको पालते हुए आत्मध्यानका साधन करे। यदि मुनिसंयमकी शक्ति न हो तो श्रावकके योग्य दर्शन, व्रत आदि ग्यारह संयमकी श्रेणियोंमेंसे किसीको ग्रहण करे । जिस श्रेणीके योग्य चारित्र पालनेकी शक्ति व योग्यता हो उस श्रेणीका चारित्र शुद्ध भावसे पालते हुए निश्चय चारित्र जो स्वरूपाचरण व आत्मा
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