Book Title: Sambodh Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha
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विहिसारं चिय सेवइ सद्धालू सत्तिमं अणुठ्ठाणं । दव्वाइ दोसनिहओ विपख्कवायं वहइ तम्मी ॥१९२॥ आसन्न सिद्धियाणं विहिपरिणामो हु होइ संया कालं । विहिञ्चाओ अविहिभत्ती अभव्वजियदूरभव्वाणं ॥ १९३॥ farala सामगेगा अब्भुदयपसाहिणी भवे बीया । निव्वुइकरणी तझ्या फलयाओ जहत्थनामेहिं ॥ १९४॥ जिणभवणबिंबठावण - जत्तापूबाइ सुत्तओ विहिणा । दव्वत्थउत्ति नेयं भावत्थयकारणत्तेण ॥ १९५ ॥ णिचं चियसंपूण्णा जइवि हु एसा न तीरए काउं । तहवि हु अणुचिट्ठियव्वा अख्कयदीवाइ दाणेण ॥ १९६ ॥ एगमवि उदगबिंदू जह पस्कित्तं महासमुद्दम्मी । जायइ अरकयमेवं पूया वि हू वीयरागेसु ॥ १९७ ॥ एए बीएणं दुकाई अपाविऊण भवगहणे । अञ्चतुदारभोए भोत्तुं सिझति स (भ) व्वजिया ॥ १९८ ॥ पूयाए मणसंती मणसंतीएहिं उत्तमं झाणं । सुहझाणेण य मोख्को मुख्के सुख्कं अणाबाहं ॥ १९९॥ पूयम्मि वीयरायं भावो विष्फुरइ विसयविच्चायां । आया अहिंसभावे वट्टइ इह तेण नो हिंसा ॥ २००॥ जत् य अहिंसभावो तत्थ य सहजोयकारणं भणियं । अणुबंधहेउरहिओ वट्टइ इह तेण नो हिंसा ॥ २०१ ॥ आभोगाणाभोग-मेओ दव्वत्यओ दुहा होइ । णिव्वित्तिपवित्तीहिं दुहा वि चउहा मुणेयव्वो ॥ २०२ ॥ देवगुणपरिन्नाणा तप्भावाणुगयमुत्तमं विहिणा । आयरसारं जिणपूयणेण आभोगदव्वत्थओ || २०३ ॥ पत्तो चरित्तलाभो होइ लहुं सयलकम्मनिद्दलणी । ता एत्थ सम्ममेव हि पर्याट्टियव्वं सुदिठ्ठीहिं ॥ २०४॥ पूयाविहिविरहाओ अपरिन्नाणाओ जिणगयगुणाणं । सुहपरिणामकयन्ना एसो णाभोगदव्वत्थओ ॥ २०५ ॥ गुणठाणगठाणत्ता एसो एवंपि गुणकरो चेव । गृहसुहयरभावविसुद्धी हेउओ बोहिलाभाओ ॥ २०६ ॥
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