Book Title: Sambodh Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ संबोध १७ ॥ Jain Education International केइ भगति मूढा पासत्थाइजणस्स दंसणयं । जिणआसायणकरणं भमंति तेणंतससारं ॥ १३३॥ जम्हा नेव जिणिदो सावज्जरओ सर्गधिसविभूसो । लोयप्पयारपख्कं कुणमाणो छंदवयमाणो ॥ १३४ ॥ णो परवित्तीविवहारकारओ सो हविज्ज कइया वि । तया कुसीललिंग धम्मस्स विडंबनाऊ ॥ १३५ ॥ इय जाणिऊण दख्का कयावि न भणति एस जिणवेसो । तद्दध्वलिंगमित्तं इंसिज्झयमाई यवित्तिकए ॥ १३६ ॥ बालाण हरिसजणण के वि य धारति वेसमण्णयरं । उन्भडपंडरवसणाइरहियं चिय सुविहियाभासं ॥ १३७॥ रंगिज्जइ मइलिज्जइ उवगरणाणि बगुव्व गमणाणि । धारंति धम्ममाया - पडलाणि सुविहियभमत्थं ॥१३८॥ जणचित्तग्गहणत्थं वख्काणांइ करंति वेरग्गे । भासंति अत्तदोसा साहुत्ति जणावबोह ॥ १३९॥ आयरिओ उवझायाणं दोसा भासंति कृष्णजाहेण । गाहिज्जइ जत्थ सुयं पमाइ दोसी ति तं भणइ ॥ १४० ॥ गिति गहावेति य दवाई नाणकोसबुढिकए । दंसइ किरियाडोंवं बाहिरओ बहियलोयाणं ॥ १४१ ॥ अण्णोष्णविसंवाओ समुदायमि वि मिलति नो केसि । नियनियउक्करिसेणं सामायारि विरोहति ॥ १४२ ॥ सव्वे वख्काणपरा सव्वे थिजणुवएससीला य । अहच्छेदकप्पजप्पा वयंति किं धम्मपरसख्कं ॥१४३॥ मंडलिजेमणिमाइववहारपरंमुहा असंबद्धा । सदकरा झंझकरा तुमंतुमा पावतत्तिल्ला ॥ १४४ ॥ सिढिलालचणकारणठाणविहारेहि सव्वमायति । भत्तजणगुणलेसो वि भाति महमेरुसारिच्छो ॥ १४५ ॥ धम्मकहाओ अहिज्जइ घराघरं भमइ परिकहंतो य । कारणपरूवणाहिं अइरितं वहइ उवगरणं ॥ १४६ ॥ १ उत्तम इति प्रत्यन्तरे । २ जण इति मुत्यन्तरे । S For Private & Personal Use Only प्रकरणम्ः ॥ १७ ॥ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130