Book Title: Sambodh Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha

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Page 38
________________ संबोध गिहिपुरेओ सझायं करंति अपणोण्णमेव झुझंति । सीसाइयाण कंजे कलहविवायं उईति ॥१२॥ कि बहुणा भणिएणं बालाणं ते हवंति रमणिज्जा । दस्काणं पुण एए विराहगा छन्नपावदहा ।।१६३॥ वंदणनमंसणाई जोगुवहाणाइ तप्युरो विहियं । गुरुबुद्धीए विहलं सवं पच्छित्तजुग्गं च ॥१६४॥ जम्हा भणियं छेए अत्थिक्वेण रहियतित्यिलिंगीण । पुरओ ज धम्मकिच्चं विहियं पच्छित्तचठगुरुयं ॥१६५॥ किइकम्मं च पसंसा सुहसीलजणमि कम्मबंधा य । जे जे पमायठाणा ते ते उवधूहिया हुंति ॥१६६॥ एवं नाऊण संसरिंग कुसीलाणं च संयवं । संवासं चे हियाकंखी सम्बोवाएहि वज्जए ॥१६॥ निन्नवअभव्वगाणं जा किरिया मुद्धमोहसंजणिया। तारिसिया खलु किरिया छउमत्थाणं नियडियाणं ॥१६८॥ निरवज्जो खलु धम्मो पन्नत्तो जिणवरेहि इव वयणं । भासंता गृहंता तित्थयराईण विहित्ति ॥१६९॥ अप्पमईइ पवयणं हीलंता तश्चमग्गमलहंता । अन्नाणकट्ठरूवं दंसइ मूहाण जीवाणं ॥१७०॥ ते विय अदंसणिज्जा जिणपवयणबाहिरा विणिदिठ्ठा । मिच्छत्तदरिद्दजुया पाविठ्ठा सवनिक्किठ्ठा ॥१७१॥ ॥ इति कुगुरुगुब्बांभासपार्श्वस्थादिस्वरूपाधिकारो द्वितीयः ॥२॥ अह सुगुरूंण सरूवं भणामि तग्गच्छसंघजुत्ताणं । अंतोमुत्तमित्तं पि तत्थ वसंते महालाभो ॥१॥ मच्छो महाणभावो तत्थ वसंताण निजरा विउला । सारणवारणचोयण-न दोसमाईहिं पडिवत्ती ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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