Book Title: Sambodh Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha

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Page 84
________________ प्रक. संबोध ॥४१॥ ॥ अथ श्राव्रताधिकारः॥ पाणिवह १ मुसावाए २ अदत्त ३ मेहुण ४ परिग्गहे विरओ५। दिसि ६ भोग ७ दंड ८ समए ९ देसे १० तह पोसह ११ विभागे १२ ॥१॥ जीवा मुहुमा धूला संकप्पारंभओ य ते दुविहा । सावराह निरखराहा साविरका चेव निरविरका ॥२॥ दुतिचउरिदिय पाणा भूया पत्तेय तरुगणा नेया । सव्वे पणिदि जीवा सेसा सत्ता थिराईया ॥३॥ सुहुमा सव्वत्य ठिया अहवा णो चम्मचरकुणो गिन्झा । थूला तसावि दुविहा चरकुगिज्झा अगिज्झा य ॥४॥ वहबंधछविच्छेए अइभारे भत्तपाणरोहे य । पढमाणुव्वयंमि य अइयारा पंच विण्णेया ॥५॥ संकप्पो संरंभो परितावकरो भवे समारंभो । आरंभो उद्दवओ सब्चव(न)याणं विसुद्धाणं ॥६॥ आभोगाणाभोगे इक्किको सो हविज्ज दुहओ य । अइक्कमवइक्कमअईयाराणायारेहिं सव्वगया ॥७॥ भूजलजलणानिलवणबितिचउपंचिदिएहिं जे जीवा । मणवयणकायगुणिया वहंति ते सत्तवीसेत्ति ॥८॥ इक्कासीइ करणकारणाणूमईहिं ताडिया होइ । सच्चिय तिकालगुणिया दुन्निसया हुँति तेयाला ॥९॥ पाणिवहे वहता भमंति भीमासु गम्भवसहीसु । संसारमंडलगया णिरयतिरिरकासु जोणीसु ॥१०॥ देसे भंगो सवंमि नी भंगमित्थपरिणामे । एवं भंगाभंगं अइयारे लरकणं नेयं ॥११॥ जं भारुग्गमुदग्गमप्पडिहयं आणेसरत्तं फुडं । रूपं अप्पडिरूवमुज्जलधरा कित्ती धणं जुम्वणं दीहं आउमवंचनो परियणो पुत्ता विणीया सया । तं सम्वं सचराचरंभि वि जए नूणं दयाए फलं ॥१२॥ ॥४१॥ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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