Book Title: Sambodh Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, 
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha

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Page 34
________________ संबोध ॥ १६ ॥ Jain Education International बस्स य निवरस य दोण्हं पि समागयाई मूलाई । संसग्गीए विणट्ठो अंबो निवत्तणं पत्तो ॥ १०३ ॥ जो जारिसेण मित्ति करेइ अचिरेण तारिसो होइ । कुसुमेहिं संवसंता तिला वि तग्गंधिया हुंति ॥ १०४ ॥ (अत्र नोदकः ) सुचिरं पि अच्छमाणो वेरुलिओ कायमणी अउम्मीसो। नहु धयइ कायभावं पाहन्नगुणेण नियपूण ॥ १०५ ॥ सुचिरं पि अच्छमाणो नलथंभो उच्छूवाडमझमि । कीस न जायइ महरो जइ संसग्गी पमाणं ते ॥ १०६॥ (tent or) भागअभावुगाणि अ लोए हुविहाइ हुंति दव्वाई । वेरुलिओ उत्थ मणी अभावणा अन्नदव्वेहि ॥ १०७ ॥ जीवो अनाइनिहणो तब्भावणभाविओ य संसारे । खिप्पं सो भाविज्जइ मेलणदोसाणुभावेण ॥ १०८ ॥ जह नाम महुरसलिलं सागरसलिलं कमेण संपत्तं । पावेइ लोणभावं मेलणदोसाणुभावेण ॥ १०९ ॥ एवं खु सीलवंतो असीलवंतेहि मीलिओ संतों । पावइ गुणपरिहाणि मेलणदोसाणुभावेण ॥ ११० ॥ आलावो सलावो वीसंभो संथवो पसंगो य । हीणायारेहिं समं सव्वजिणिदेहि पडिकुट्ठो ॥ १११ ॥ उत्तमायरंतो बंधइ कम्मं सुचिक्कणं जीवो । संसारं च पवइ मायामोसं च कुव्वइ य ॥ ११२ ॥ जो गिues वयलोवो अहव न गिण्हइ सरीरवुच्छेए । पासत्यसंगमो वि य वयलोवो तो वरमसंगो ॥ ११३ ॥ एयारिसाण दुस्सी - लयाण साहृपिसायाण भत्तिपुवं जे । वंदणनमंसणाड़ कुव्वंति न महापावा ॥ ११४ ॥ 'सि गुरुबुद्धीए पञ्चस्काणाइ धम्मणट्टाणं । धम्मुत्ति नाऊणं विहलं पच्छित्तजुग्गं च ॥ ११५ ॥ - छल्लयं गुरुकज्जे ममत्तबुद्धीए होइ मिच्छत्तं । लहुकिचे पणमासो सट्टाणं धम्मसङ्काणं ॥ ११६ ॥ "दस्सीलव्वलिंगिजणाण तप्पस्वकारओ ढोओ । उम्मग्गअविहिरायी विहिप के मच्छरधरो य ॥११७॥ For Private & Personal Use Only प्रकरण ॥१६ www.jainelibrary.org

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