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अबद्धपुट्ठ अनन्य नियत अविशेष जाने आत्म को । संयोग विरहित भी कहे जो शुद्धनय उसको कहें ॥ १४ ॥ अबद्धपुट्ठ अनन्य अरु अविशेष जाने आत्म को । अपदेश एवं शान्त वह सम्पूर्ण जिनशासन लहे ॥ १५ ॥ चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा । ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा ॥ १६ ॥ 'यह नृपति है' - यह जानकर अार्थिजन श्रद्धा करें । अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें ॥ १७ ॥ यदि मोक्ष की है कामना तो जीवनृप को जानिए । अति प्रीति से अनुचरण करिए प्रीति से पहिचानिए ॥ १८ ॥