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इसलिए यह शुद्धातमा पर जीव और अजीव से । कुछ भी ग्रहण करता नहीं कुछ भी नहीं है छोड़ता ॥४०७॥ ग्रहण कर मुनिलिंग या गृहिलिंग विविध प्रकार के । यह लिंग ही है मुक्तिमग यह कहें कतिपय मूढजन ॥४०८॥ पर मुक्तिमग ना लिंग क्योंकि लिंग तज अरिहंत जिन । निज आत्म अरु सद्-ज्ञान-दर्शन-चरित का सेवन करें ॥४०९॥ बस इसलिए गृहिलिंग या मुनिलिंग ना मग मुक्ति का । जिनवर कहें बस ज्ञान-दर्शन-चरित ही मग मुक्ति का ॥४१०॥ बस इसलिए अनगार या सागार लिंग को त्यागकर । जुड़ जा स्वयं के ज्ञान-दर्शन-चरणमय शिवपंथ में ॥४११॥