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मोक्षपथ में थाप निज को चेतकर निज ध्यान धर । निज में ही नित्य विहार कर परद्रव्य में न विहार कर ॥४१२ ॥
ग्रहण कर मुनिलिंग या गृहिलिंग विविध प्रकार के उनमें करें ममता न जाने वे समय के सार को ॥४१३॥
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व्यवहार से ये लिंग दोनों कहे परमार्थ से तो नहीं कोई लिंग
मुक्तीमार्ग में । मुक्तीमार्ग में ||४१४ ॥
जो जानकर ।
पढ़ समयप्राभृत ग्रंथ यह तत्त्वार्थ से निज अर्थ में एकाग्र हों वे परमसुख को प्राप्त हों ॥। ४१५ ॥ पंचविंशति पंचदश श्री वीर के निर्वाण दिन । पूरा हुआ इस ग्रन्थ का शुभ पद्यमय अनुवाद यह ॥४१६॥