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बंध-भोग-निमित्त में अर देह में संसार में । सद्ज्ञानियों को राग होता नहीं अध्यवसान में ॥ २१७ ॥ पंकगत ज्यों कनक निर्मल कर्मगत त्यों ज्ञानिजन | राग विरहित कर्मरज से लिप्त होते हैं नहीं ॥ २९८ ॥ पंकगत ज्यों लोह त्यों ही कर्मगत अज्ञानिजन । रक्त हों परद्रव्य में अर कर्मरज से लिप्त हों ॥२१९॥
ज्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते । भी संख के शुक्लत्व को ना कृष्ण कोई कर सके ॥ २२० ॥ त्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते । भी ज्ञानि के ना ज्ञान को अज्ञान कोई कर सके ॥ २२९ ॥