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जब स्वयं शुक्लत्व तज वह कृष्ण होकर परिणमे । तब स्वयं ही हो कृष्ण एवं शुक्ल भाव परित्यजे ॥२२२॥
इस ही तरह जब ज्ञानिजन निजभाव को परित्यागकर । अज्ञानमय हों परिणमित तब स्वयं अज्ञानी बनें ॥२२३॥
आजीविका के हेतु नर ज्यों नृपति की सेवा करे । तो नरपती भी सबतरह उसके लिए सुविधा करे ॥ २२४ ॥
इस ही तरह जब जीव सुख के हेतु सेवे कर्मरज । तो कर्मरज भी सबतरह उसके लिए सुविधा करे ॥ २२५ ॥ आजीविका के हेतु जब नर नृपति सेवा ना करे । तब नृपति भी उसके लिए उसतरह सुविधा न करे ||२२६ ॥