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ना स्वयं करता मोह एवं राग-द्वेष-कषाय को । इसलिए ज्ञानी जीव कर्ता नहीं है रागादि का ॥२८०॥ राग-द्वेष-कषाय कर्मों के उदय में भाव जो । उनरूप परिणत जीव फिर रागादि का बंधन करे ॥२८१।। राग-द्वेष-कषाय कर्मों के उदय में भाव जो । उनरूप परिणत आतमा रागादि का बंधन करे ॥२८२॥ है द्विविध अप्रतिक्रमण एवं द्विविध है अत्याग भी । इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आतमा ॥२८३॥ अत्याग अप्रतिक्रमण दोनों द्विविध हैं द्रवभाव से । इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आतमा ॥२८४॥