________________
(८६)
।
परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से बस त्योंहि दृष्टा देखता परद्रव्य को निजभाव से ॥३६२॥
।
|| ३६३॥
।
परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से बस त्यहि ज्ञाता त्यागता परद्रव्य को निजभाव से परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से सुदृष्टि त्यों ही श्रद्धता परद्रव्य को निजभाव से || ३६४ ॥ यह ज्ञान - दर्शन - चरण विषयक कथन है व्यवहार का अर अन्य पर्यय विषय में भी इसतरह ही जानना || ३६५ ॥
।
ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन विषय में । इसलिए यह आतमा क्या कर सके उस विषय में ॥ ३६६ ॥