________________
(८५)
ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है । दर्शक नहीं त्यों अन्य का दर्शक तो बस दर्शक ही है ॥३५७॥ ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है । संयत नहीं त्यों अन्य का संयत तो बस संयत ही है ॥३५८॥ ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है । दर्शन नहीं त्यों अन्य का दर्शन तो बस दर्शन ही है ॥३५९॥ यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयक कथन है परमार्थ का । अब सुनो अतिसंक्षेप में तुम कथन नय व्यवहार का ॥३६०।। परद्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से । बस त्योंहि ज्ञाता जानता परद्रव्य को निजभाव से ॥३६१॥