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क्योंकि आतम नित्य है एवं असंख्य- प्रदेशमय । ना उसे इससे हीन अथवा अधिक करना शक्य है ॥ ३४२ ॥
विस्तार से भी जीव का जीवत्व लोकप्रमाण है । ना होय हीनाधिक कभी कैसे करे जिय द्रव्य को || ३४३ ॥
यदी माने रहे ज्ञायकभाव ज्ञानस्वभाव में । तो भी आतम स्वयं अपने आतमा को ना करे ॥३४४॥
यह आतमा हो नष्ट कुछ पर्याय से कुछ से नहीं । जो भोगता वह करे अथवा अन्य यह एकान्त ना ॥ ३४५॥
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यह आतमा हो नष्ट कुछ पर्याय से कुछ से नहीं जो करे भोगे वही अथवा अन्य यह एकान्त ना ॥ ३४६ ॥