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गुड़-दूध पीता हुआ भी निर्विष न होता सर्प ज्यों । त्यों भलीभाँति शास्त्र पढ़कर अभवि प्रकृती न तजे ॥३१७॥ निर्वेद से सम्पन्न ज्ञानी मधुर-कड़वे नेक विध । वे जानते हैं कर्मफल को हैं अवेदक इसलिए ॥३१८॥ ज्ञानी करे-भोगे नहीं बस सभी विध-विध करम को । वह जानता है कर्मफल बंध पुण्य एवं पाप को ॥३१९॥ ज्यों दृष्टि त्यों ही ज्ञान जग में है अकारक अवेदक । जाने करम के बंध उदय मोक्ष एवं निर्जरा ॥३२०॥ जगत-जन यों कहें विष्णु करे सुर-नरलोक को । रक्षा करूँ षट्काय की यह श्रमण भी माने यही ॥३२१॥