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उत्पन्न होता नष्ट होता जीव प्रकृति निमित्त से । उत्पन्न होती नष्ट होती प्रकृति जीव निमित्त से ॥३१२॥ यों परस्पर निमित्त से हो बंध जीव रु कर्म का । बस इसतरह ही उभय से संसार की उत्पत्ति हो ॥३१३॥ जबतक न छोड़े आतमा प्रकृति निमित्तिक परिणमन । तबतक रहे अज्ञानि मिथ्यादृष्टि एवं असंयत ॥३१४॥ जब अनन्ता कर्म का फल छोड़ दे यह आतमा । तब मुक्त होता बंध से सदृष्टि ज्ञानी संयमी ॥३१५॥ प्रकृतिस्वभावस्थित अज्ञानी कर्मफल को भोगते । पर ज्ञानिजन तो कर्मफल को जानते ना भोगते ॥३१६॥