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तो ना श्रमण अर लोक के सिद्धान्त में अन्तर रहा । सम मान्यता में विष्णु एवं आतमा कर्ता रहा ॥३२२॥ इसतरह कर्तृत्व से नित ग्रसित लोक रु श्रमण को । मोक्ष दोनों को दिखाई नहीं देता है मुझे ॥३२३॥ अतत्वविद् व्यवहार ग्रह परद्रव्य को अपना कहें । पर तत्वविद् जाने कि पर परमाणु भी मेरा नहीं ॥३२४॥ ग्राम जनपद राष्ट्र मेरा कहे कोई जिसतरह । किन्तु वे उसके नहीं हैं मोह से ही वह कहे ॥३२५॥ इसतरह जो 'परद्रव्य मेरा' - जानकर अपना करे । संसय नहीं वह ज्ञानि मिथ्यादृष्टि ही है जानना ॥३२६॥