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अभव्यजन श्रद्धा करें रुचि धरें अर रच-पच रहें । जो धर्म भोग निमित्त हैं न कर्मक्षय में निमित्त जो ॥२७५॥ जीवादि का श्रद्धान दर्शन शास्त्र अध्ययन ज्ञान है । चारित्र है षट्काय रक्षा - यह कथन व्यवहार है ॥२७६॥ निज आतमा ही ज्ञान है दर्शन चरित भी आतमा । अर योग संवर और प्रत्याख्यान भी है आतमा ॥२७७॥ ज्यों लालिमामय स्वयं परिणत नहीं होता फटिकमणि । पर लालिमायुत द्रव्य के संयोग से हो लाल वह ॥२७८ ॥ त्यों ज्ञानिजन रागादिमय परिणत न होते स्वयं ही । रागादि के ही उदय से वे किए जाते रागमय ॥२७९॥