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ये भाव अध्यवसान होते वस्तु के अवलम्ब से। पर वस्तु से ना बंध हो हो बंध अध्यवसान से ॥२६५ ॥ मैं सुखी करता दुखी करता बाँधता या छोड़ता । यह मान्यता है मूढमति मिथ्या निरर्थक जानना ॥२६६॥ जिय बँधे अध्यवसान से शिवपथ-गमन से छूटते । गहराई से सोचो जरा पर में तुम्हारा क्या चले? ॥२६७।। यह जीव अध्यवसान से तिर्यंच नारक देव नर । अर पुण्य एवं पाप सब पर्यायमय निज को करे ॥२६८॥ वह जीव और अजीव एवं धर्म और अधर्ममय । अर लोक और अलोक इन सबमय स्वयं निज को करे ॥२६९।।