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त्यों कर्मरज सेवे नहीं जब जीव सुख के हेतु से । तो कर्मरज उसके लिए उसतरह सुविधा ना करे ॥ २२७ ॥
निःशंक हों सद्दृष्टि बस इसलिए ही निर्भय रहें । वे सप्त भय से मुक्त हैं इसलिए ही निःशंक हैं ॥२२८॥ जो कर्मबंधन मोह कर्ता चार वे आतमा निःशंक सम्यग्दृष्टि हैं
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पाये छेदते ।
यह जानना ॥२२८॥
सब धर्म एवं कर्मफल की ना करें आकांक्षा । वे आतमा निकांक्ष सम्यग्दृष्टि हैं
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यह जानना ॥ २३०॥
जो नहीं करते जुगुप्सा सब वस्तु धर्मों के प्रति । वे आतमा ही निर्जुगुप्सक समकिती हैं जानना ॥२३१॥