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चिकनाई ही रजबंध का कारण कहा जिनराज ने । पर कायचेष्टादिक नहीं यह जान लो परमार्थ से ॥ २४०॥
बहुभाँति चेष्टारत तथा रागादि को करते हुए । सब करमरज से लिप्त होते हैं जगत में अज्ञजन || २४१॥ ज्यों तेल मर्दन रहित जन रेणू बहुल स्थान में । व्यायाम करता शस्त्र से बहुविध बहुत उत्साह से || २४२ ॥ तरु ताल कदली बाँस आदिक वनस्पति छेदन करे । सचित्त और अचित्त द्रव्यों का बहुत भेदन करे || २४३ ॥ बहुविध बहुत उपकरण से उपघात करते पुरुष को परमार्थ से चिन्तन करो रजबंध क्यों कर ना हुआ ? ॥ २४४॥
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