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है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे असन को । है परिग्रह ना असन का वह असन का ज्ञायक रहे ॥२१२॥ है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे पेय को । है परिग्रह ना पेय का वह पेय का ज्ञायक रहे ॥२१३॥ इत्यादि विध-विध भाव जो ज्ञानी न चाहे सभी को । सर्वत्र ही वह निरालम्बी नियत ज्ञायकभाव है ॥२१४॥ उदयगत जो भोग हैं उनमें वियोगीबुद्धि है । अर अनागत भोग की सद्ज्ञानि के कांक्षा नहीं ॥२१५॥ वेद्य-वेदक भाव दोनों नष्ट होते प्रतिसमय । . ज्ञानी रहे ज्ञायक सदा ना उभय की कांक्षा करें ॥२१६।।