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बस उसतरह ही कर्म कुत्सित शील हैं - यह जानकर । निजभावरत जन कर्म से संसर्ग को हैं त्यागते ॥१४९।। विरक्त शिव रमणी वरें अनुरक्त बांधे कर्म को । जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ॥१५०।। परमार्थ है है ज्ञानमय है समय शुध मुनि केवली । इसमें रहें थिर अचल जो निर्वाण पावें वे मुनी ॥१५१॥ परमार्थ से हों दूर पर तप करें व्रत धारण करें । सब बालतप हैं बालव्रत वृषभादि सब जिनवर कहें ॥१५२।। व्रत नियम सब धारण करें तपशील भी पालन करें । पर दूर हों परमार्थ से ना मुक्ति की प्राप्ति करें ॥१५३।।