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(४१) परमार्थ से हैं बाह्य वे जो मोक्षमग नहीं जानते । अज्ञान से भवगमन-कारण पुण्य को हैं चाहते ॥१५४।। जीवादि का श्रद्धान सम्यक् ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । रागादि का परिहार चारित - यही मुक्तिमार्ग है ॥१५५॥ विद्वानगण भूतार्थ तज वर्तन करें व्यवहार में । पर कर्मक्षय तो कहा है परमार्थ-आश्रित संत के ॥१५६॥ ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से । सम्यक्त्व भी त्यों नष्ट हो मिथ्यात्व मल के लेप से ॥१५७।। ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से । सद्ज्ञान भी त्यों नष्ट हो अज्ञान मल के लेप से ॥१५८।।