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ज्यों अग्नि से संतप्त सोना स्वर्णभाव नहीं तजे । त्यों कर्म से संतप्त ज्ञानी ज्ञानभाव नहीं तजे ॥१८४॥ जानता यह ज्ञानि पर अज्ञानतम आछन्न जो । वे आतमा जाने न माने राग को ही आतमा ॥१८५॥ जो जानता मैं शुद्ध हूँ वह शुद्धता को प्राप्त हो । जो जानता अविशुद्ध वह अविशुद्धता को प्राप्त हो ॥१८६॥ पुण्य एवं पाप से निज आतमा को रोककर । अन्य आशा से विरत हो ज्ञान-दर्शन में रहें ॥१८७॥ विरहित करम नोकरम से निज आत्म के एकत्व को । निज आतमा को स्वयं ध्या सर्व संग विमुक्त हो ॥१८८।।