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जीवकृत रागादि ही बंधक कहे हैं सूत्र में । रागादि से जो रहित वह ज्ञायक अबंधक जानना ॥१६७।। पक्वफल जिसतरह गिरकर नहीं जुड़ता वृक्ष से । बस उसतरह ही कर्म खिरकर नहीं जुड़ते जीव से ॥१६८॥ जो बंधे थे भूत में वे कर्म पृथ्वीपिण्ड सम । वे सभी कर्म शरीर से हैं बद्ध सम्यग्ज्ञानि के ॥१६८॥ प्रतिसमय विध-विध कर्म को सब ज्ञान-दर्शन गुणों से । बाँधे चतुर्विध प्रत्यय ही ज्ञानी अबंधक इसलिए ॥१७०।। ज्ञानगुण का परिणमन जब हो जघन्यहि रूप में । अन्यत्व में परिणमे तब इसलिए ही बंधक कहा ॥१७१॥