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सब की सुनी अनुभूत परिचित भोग बंधन की कथा । पर से पृथक् एकत्व की उपलब्धि केवल सुलभ ना ॥ ४ ॥
निज विभव से एकत्व ही दिखला रहा करना मनन । पर नहीं करना छलग्रहण यदि हो कहीं कुछ स्खलन ॥ ५ ॥
न अप्रमत्त है न प्रमत्त है बस एक ज्ञायकभाव है । इस भाँति कहते शुद्ध पर जो ज्ञात वह तो वही है ।। ६ ।।
दृग ज्ञान चारित जीव के हैं - यह कहा व्यवहार से । ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से ॥ ७ ॥
अनार्य भाषा के बिना समझा सके न बस त्यहि समझा सके ना व्यवहार बिन
अनार्य को । परमार्थ को ॥ ८ ॥