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यदि लक्षणों की एकता से जीव हों पुद्गल सभी । बस इसतरह तो सिद्ध होंगे सिद्ध भी पुद्गलमयी ॥६४ ॥ एकेन्द्रियादिक प्रकृति हैं जो नाम नामक कर्म की। पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म-वादर आदि सब ॥ ६५ ।। इनकी अपेक्षा कहे जाते जीव के स्थान जो। कैसे कहें - 'वे जीव हैं'- जब प्रकृतियाँ पुद्गलमयी ॥६६ ॥ पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म वादर आदि सब । जड़ देह की है जीव संज्ञा सूत्र में व्यवहार से ॥ ६७ ॥ मोहन-करम के उदय से गुणथान जो जिनवर कहे । वे जीव कैसे हो सकें जो नित अचेतन ही कहें ? ॥ ६८ ।।