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(३४)
स्वयं ही क्रोधादि में यदि जीव ना हो परिणमित । तो सिद्ध होगा सांख्यमत संसार की हो नास्ति ॥ १२२ ॥
यदि परिणमावे कर्मजड़ क्रोधादि में इस जीव को । पर परिणमावे किसतरह वह अपरिणामी वस्तु को ॥ १२३ ॥
यदि स्वयं ही क्रोधादि में परिणमित हो यह आतमा । मिथ्या रही यह बात उसको परिणमावे कर्म जड़ ॥ १२४॥
क्रोधोपयोगी क्रोध है मानोपयोगी मान है । मायोपयोगी माया है लोभोपयोगी
जो भाव आतम करे वह उस कर्म का ज्ञानियों के ज्ञानमय अज्ञानि के
लोभ है ॥ १२५ ॥
कर्ता बने ।
अज्ञानमय ॥ १२६ ॥