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थिति बंध के स्थान नहिं संक्लेश के स्थान ना । संयमलब्धि के स्थान ना सुविशुद्धि के स्थान ना ॥५४॥ जीव के स्थान नहिं गुणथान के स्थान ना । क्योंकि ये सब भाव पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं ॥ ५५ ॥ वर्णादि को व्यवहार से ही कहा जाता जीव के। परमार्थ से ये भाव भी होते नहीं हैं जीव के ॥५६॥ दूध-पानी की तरह सम्बन्ध इनका जानना । उपयोगमय इस जीव के परमार्थ से ये हैं नहीं ।। ५७ ॥ पथिक लुटते देखकर पथ लुट रहा जग-जन कहें । पर पथ तो लुटता है नहीं बस पथिक ही लुटते रहें ।। ५८ ॥