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की कृपा और आशीर्वाद को ही प्रधान कारण मानता था । और इसी कारण से उनके प्रति अनन्य श्रद्धा और भक्ति रखता था। गुरु के गुण शिष्य में आना, यह आवश्यक था। गुरु की कृपा के सिवाय यह कैसे हो सस्ता है ? यह भारतीय संग्कृति थी। यही कारण था कि 'गुरुकुल वास' आवश्यकीय समझा जाता था। उपनिषदों और जैनागमों में ऐसे 'गुरुकुलवास' का बहुत महत्व बताया गया है । "विद्या विनय से प्राप्त होती है" यह हमारे देश की श्रद्धा का एक प्रतीक रहा है। विनय-हीन विद्यार्थी की क्या दशा होती है, इसका सुन्दर चित्रण जैनों के उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन में पाया जाता है। विद्यार्थियों के चरित्र-निर्माण की यही प्राथमिक भूमिका है। प्राचीनशिक्षण-पद्धति में इसका प्राधान्य था।
प्राचीन शिक्षण संस्थाएँ उपनिषद् और जैनागमों में प्राचीन शिक्षण-पद्धति का जो वर्णन पाया जाता है, उममें गुरुकुल, अथवा आश्रमों का काफी वर्णन आता है। प्राचीनकाल में शिक्षस की जो संस्थायें प्रचलित थीं, उनमें मुख्य प्राश्रम थे। आठ वर्ष की उम्र से बालकों के शिक्षस और चरित्र-निर्माण का कार्य ऐसे हो श्राश्रमों में प्रारम्भ होता था । यद्यपि इतिहासों में विद्यापीठों का वर्मन भी श्राता है, जिनमें नालन्दा, मिथिला, बनारस, विजयनगर, वल्लभीपुर और तक्षशिला आदि स्थानों के विद्यापीठों का काफी उल्लेख मिलता है । वे विद्या-पाठ आज के विश्व-विद्यालयों के स्थान में थे। दस-दस हजार छात्रों का रहना, पन्द्रह सौ शिक्षकों का पढ़ाना, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक भौगोलिक आदि अनेक विषयों का उच्च-कोटि का ज्ञान कराना यह उन विद्यापीठों का कार्य क्षेत्र था। किन्तु चरित्र-निर्माण का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com