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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
तो अज्ञात ही है । दूरसुदूर की उपत्यकाओं और गिरिकन्दराओं से, तालपत्रों की किंचित् पट्टिकाओं से, शिल्पों के भग्नावशेषों से एवं क्रान्तदृष्टा जैन ध्यानी मनीषियों-योगियों की युगान्तकारी आर्षदृष्टियों जो "संकेत" मिलते हैं, वे इस गुप्त दक्षिणापथ की महान खोज के लिये शोधकर्ताओं को बुलावा दे रहे हैं । कब और कौन इन निराले निमंत्रणों को स्वीकार करेगा ?
अब तक उपलब्ध इन संकेतों से इतना तो स्पष्ट हो सकता कि भगवान मुनिसुव्रत स्वामी, २० वें जैन तीर्थंकर के काल में कर्णाटक के अनेक स्थानों में जैन तीर्थों का, जिनचैत्यों का, जिन गुफाओं का अनेक रूपों में अस्तित्व था । इन अनेक स्थानों में से एक का उल्लेख उपर्युक्त 'कर्णाटे विकटतरकटे’ वाले “सद्भक्त्या स्तोत्र " के श्लोक में मिलता है। हंपी के हेमकूट, चक्रकूट, रत्नकूट, भोट आदि जैन तीर्थों की ओर इन संकेतों का इशारा है । तब इस भूभाग में १४० के आसपास जिनचैत्यालयों के अस्तित्व की सम्भावना है । इन पाषाण तीर्थों की गह्वरगुफाओं में और गिरि कन्दराओं में तब न जाने कितने सिध्धात्माओं ने अपने आत्मध्यान की धुनि रमाई होगी ।
२० वें जैन तीर्थंकर के काल के बाद के जैनधर्म के इतिहास को तो अनेक इतिहासकार, अनेक रुपों में स्वीकार करने और प्रकट करने लगे हैं । उनमें से एक संनिष्ठ लेखक हैं सुप्रसिद्ध हिन्दी राष्ट्रकवि श्री रामधारीसिंह "दिनकर" । जिसकी भूमिका के लेखक पं. जवाहरलाल नेहरु रहे हैं ऐसे उनके महत्त्वपूर्ण भारतीय संस्कृति के इतिहास - ग्रंथ "संस्कृति के चार अध्याय " में श्री दिनकरजी लिखते हैं :
"ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन-धर्म की परंपरा वेदों तक पहुंचती है । महाभारतयुद्ध के समय इस संप्रदाय के एक नेता नेमिनाथ थे जिन्हें जैन अपना एक तीर्थंकर (२२वें ) मानते हैं । ई.पू. आठवीं सदी में तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए जिनका जन्म काशी में हुआ था । काशी के पास ही ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था जिनके नाम पर "सारनाथ" का नाम चला आता है । फिर उस काल से लेकर इस २४वें जिनशासनपति श्रमण तीर्थंकर महावीर के काल में विजयनगर साम्राज्य के समय तक के तो अनेक रहस्य स्पष्ट रुप से प्रकट हैं। जैनपंथ के अंतिम तीर्थंकर महावीर वर्धमान हुए जिनका जन्म ई.पू. ५९९ में हुआ था ।
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"मौर्यकाल में, भद्रबाहु के नेतृत्व में, जैन श्रमणों का एक दल दक्षिण गया और मैसूर में रहकर अपने धर्म का प्रचार करने लगा। ईसा की पहली शताब्दि में कलिंग के राजा खारवेल ने जैनधर्म स्वीकार किया । ईसा की आरंभिक सदियों में उत्तर में मथुरा और दक्षिण में मैसूर ( श्रवण बेलगोळा) जैन-धर्म के बहुत बड़े केन्द्र थे । पाँचवीं से बारहवीं शताब्दि तक दक्षिण में गंग, कदम्ब, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों ने जैन-धर्म की बहुत सेवा की और उसका काफी प्रचार किया । इन राजाओं के यहाँ अनेक जैन कवियों को भी प्रश्रय मिला था जिनकी रचनाएँ आज तक उपलब्ध हैं । ग्यारहवीं सदी के आसपास चालुक्य वंश के राजा सिध्धराज और उनके पुत्र कुमारपाल ने जैनधर्म को राज-धर्म बना लिया तथा गुजरात में उसका व्यापक प्रचार किया । अपभ्रंश के लेखक और जैन विद्वान् हेमचन्द्र कुमारपाल के ही दरबार में रहते थे ।
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