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अवधूत का अलख जागा... और साकार हुआ गिरिकंदराओं में आश्रम !
• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
और उन्होंने यहाँ अलख जगाया । एकांत, वीरान एवं भयावह इन गुफाओं में आरंभ हुआ उनका एकांतवास । निर्भय एवं अटल रूप से उन्होंने अपनी अधूरी साधना पुनः आरंभ की। उस साधना का लाभ दक्षिण भारत के अनेक साधक उठा सकें, इस उद्देश्य से उन गिरि-कन्दराओं में साकार हुआ यह 'श्रीमद् राजचंद्र आश्रम' । श्रीमद् इस साधना के केन्द्र-बिन्दु थे। आज से आठ वर्ष पूर्व, वि.सं. २०१७ में 'आत्म तत्त्व की साधना के अमीप्सुओं के लिए', बिना किसी जाति - वेश, भाषा, धर्म, देश इ. के बंधन लिए हुए ।
'रत्कूट' की प्राचीन साधना भूमि की विभिन्न गुफाओं, गिरि-कंदराओं एवं शिलाओं के मध्य इसका विस्तार होता चला... सर्व-धर्मो के साधक इस साधना से आकर्षित हो दूर दूर से आने लगे..... 'श्रीमद् राजचंद्रजी की आत्मदर्शन की आतुरता एवं परमपद - प्राप्ति हेतु नियत विशुद्ध साधनामय जीवन एवं कवन' से दक्षिण के अपरिचित साधक प्रभावित होने लगे। उनके जीवन-दर्शन एवं निर्देश के अनुसार साधना करवा रहे अवधूत श्री सहजानंदघन - भद्रमुनिजी की अन्य धर्माचार्यों एवं राजपुरुषों स्तुति की । यह उनकी समन्वयात्मक स्याद्वाद शैली की साधना की एक अतुलनीय सिद्धि है । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण था - रामानुज संप्रदाय के आचार्य श्री तोलप्पाचार्य एवं मैसूर राज्य के गृहप्रधान श्री पाटिल द्वारा 'रत्नकूट' की जमीन का प्रदान । ३० एकड़ के विस्तार की उस पर्वतीय भूमि पर आज लगभग दस गुफाएं, सर्वसाधारण एवं व्यक्तिगत निवास-स्थान, गुरुमंदिर, गुफामंदिर, भोजनालय एवं छोटी-सी गौशाला पाये जाते हैं। कई निवासखंड, एक दर्शन विद्यापीठ, सभामंडप, श्रीमद् राजचंद्रजी का ध्यानालय, एवं एक विशाल जिनालय निर्माणाधीन हैं । आश्रम में एकाकी एवं सामूहिक- दोनों प्रकार से सम्यग् दर्शन - चारित्र की, दूसरे शब्दों मे दृष्टि, विचार, आचारशुद्धि एवं भक्ति, ज्ञान, योग की साधना चल रही है । आश्रम के द्वार बिना किसी भेदभाव के सब साधकों के लिये खुले हैं। हाँ, साधकों के लिये कुछ नियम अवश्य हैं, जिनमें श्रीमद् राजचन्द्रजी के जीवन दर्शन, आचार एवं विचार का प्रतिबिम्ब है । प्रथम नियम ध्यान आकर्षित करता है- "मत-पंथ के आग्रहों का परित्याग एवं पन्द्रह भेद से सिद्ध के सिद्धांतानुसार धर्म - समन्वय ।"
यह नियम श्रीमद् के सुविचार की स्मृति दिलाता है : "तुम चाहे किसी धर्म को मानो, मैं निष्पक्ष हूँ..... जिस राह से संसार के मल का नाश हो, उस भक्ति मार्ग धर्म एवं सदाचार का तुम पालन करना ।"
साधकीय नियमावली के अन्य निषेधों में इस सदाचार का समावेश हो जाता है, यथा, सात व्यसन, रात्रिभोजन, कंदमूल आदि अभक्ष्य पदार्थो का वीतरागता युक्त त्याग ।
इस लेख के लेखन समय सन् 1969, संवत् 2026 से ।
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