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श्री सहजानंदघन गुरूगाथा .
अनशन करा देने की भावना प्रकट करते हुए अपने पूज्यवरों से प्रार्थना की कि, "मुझे श्री सीमंघर स्वामी के समवसरण का वर्णन सुनाईए, मैं उनके चरणों में जाऊँगा... उनके वरद हस्तों से दीक्षा ग्रहण करूँगा.... ।"
और फिर वे स्वयमेव 'तार-सप्तक' में विशुद्ध भक्तिपूर्वक नामस्मरण करते हुए श्री भक्तामर स्तोत्र की इस गाथा की धुन में तल्लीन हो गए :
"सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान् मुनीश !"
लय लगी, देह भान छूटा, समाधिस्थ हो गए..... फिर हुई अनेक अनुभूतियाँ, दिव्यध्वनि का श्रवण और पुनः आकाशवाणी आदेश : "असंग होकर आप तप करें, तप करें ।"
जीवन की यह आकाशवाणी-श्रवणमय दूसरी विशेष अनुभूति थी।
• संवत् १९९९ - सन् 1943 महेसाणा गुजरात : जहाँ फिर जीवन की तीसरी अधिक विशिष्ट अनुभूति ने आकार लिया । दीपावली पर्व, संध्या का समय और ध्यानावस्था में ऊर्ध्व आरोहण करते हुए दिखाई दिए तीर्थाधिराज अष्टापद पर प्रत्यक्ष रूप में स्वयं ही ! ध्यानदशा स्वयंसमाधि में परिणत हुई और इस विशिष्ट अनुभूति में मानों गौतमस्वामीवत् ऐसी ही आत्म-लब्धि का प्राकट्य हुआ कि "स्वयं सूक्ष्म शरीर से अष्टापद पर ही हैं।"
बाद में कुछ गुरूजनों-सुज्ञजनों के प्रति व्यक्त उनका यह अनुभूति-वर्णन, उनके चंद पत्रों, पदों और एक विशिष्ट प्रवचन में भी अभिव्यक्त हुआ है। ___अनंत लब्धिनिधान गणधर श्री गौतमस्वामी के आत्मलब्धिपूर्वक अष्टापदआरोहण के पश्चात् किसी महत्पुरुष द्वारा ऐसा आरोहणदर्शन हुआ है क्या ? शायद जैन मनीषियों एवं इतिहासज्ञों द्वारा यह संशोधन का विषय है, जब इन दिनों अष्टापद की भौगोलिक खोज के कुछ विद्वद्जनों के सुप्रयास चल रहे हैं।
भद्रमुनि का उपर्युक्त अनुभूतिजनित वर्णन, उन्होंने बाद में ७-५-१९६० के दिन के (7-5-1960) पद-लेखन में अद्भुत एवं अन्यों द्वारा अव्यक्त अभूतपूर्व रूप में अभिव्यक्त किया है : सिद्धक्षेत्र की कैलाश-अष्टापद :
"चलो हंस ! अष्टापद कैलास, कर्म अष्ट हो नाश... चलो. ऋषभ प्रभु निर्वाण-भूमि यही, हिम छायो चौ पास, सागर गंग नाले शुचि होकर, भव परिक्रमा खलास... चलो. पश्चिम दिशि नभ-मग चढ़ श्रेणि, आठ तला क्रम जास; सप्तम तल गढ़ फाटक हो चढ़, पैड़ी आठ उल्लास... चलो. २ अष्टम तल सब चौदह मंदिर मध्य श्री ऋषभ आवास; रत्न बिंब मणि-मंडित मंदिर अद्भुत दिव्य प्रकाश... चलो. ३
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