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परिशिष्ट- ११
गुरूकृपा का महासृजन : 'सप्तभाषी आत्मसिद्धि'
उसकी सिध्धिकर्ता स्वयं विदुषी विमलाताई के शब्दों में : (गुरूदेव सहजानंदघनजी की यह भावना अंतमें विदुषी विमलाताईने पूर्ण करवायी )
रम
AARANDAN
२८ अगस्त १९९६
प्रिय भाई प्रतापजी,
• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
१५ अगस्त १९९६
प्रिय भाई प्रतापजी,
गई काले सप्तभाषी आत्मसिद्धि अंगेना कागळिया मळ्या. खूब ज सन्तोष अनुभव्यो. तमोए घणो श्रम करीने अनुवाद कराव्या ! शाब्बाश !
मराठी अनुवाद खरेखर सारो छे. व्याकरणनी जे भूलो तमारी नजरे चढी छे ते गद्यनी दृष्टिए बराबर गणाय पण पद्यमां अने ते पण गेय पद्यमां ह्रस्व-दीर्घ, लघु-गुरू ने बधा नियमो लागु नथी पडता एवो ख्याल छे.
एटले हुं तो मूळ लखाण राखवानी हिंमत करीश. छतांय तमोने जे उचित लागे ते करशो जी.
स्नेहादर साथे बहेनना, विमल आशिष
पत्र मिला । सप्तभाषी आत्मसिद्धि तैयार करना एवं छपवाना यह आपके जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है । गुजरात के राजचन्द्र आश्रमों को जो करना चाहिए था, जो उनका दायित्व था, वह उन्होंने नहीं किया । आपके हाथों यह कार्य हुआ । शायद श्रीमद् राजचन्द्र का अनुग्रह आप दोनों पर उतरा है ।
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मराठी अनुवाद देख गई । काव्य रचना की दृष्टि से मुझे निर्दोष प्रतीत होता है ।
दीदी के स्नेहभरे
विमल आशीष