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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
एक ओर से परिवारिकों-हितैषियों की दृढ़ता, दूसरी ओर से उन्हें परिवर्तित करने की युवा मळजीभाई की भी दृढता । अंततोगत्वा प्रथम अपने कलधर्म मे मनिदीक्षा एवं गरुकल वास में साधना करने की उन्हें अनुमति-आज्ञा बुजुर्गोने अतीव दुःखी हृदय से प्रदान की, जिसे उन्होंने शिरोधार्य की। गुरूकुलवास ___ खरतरगच्छीय जैनाचार्य श्री जिनयशःसूरि म. अंतेवासी जिनरत्नसूरिजी की पावन निश्रा में, वैशाख शुक्ला छठवी वि.सं. १९९१ (1991) बुधवार, दि. 8-5-1935 के पूर्वान्ह में लायजा गाँव में महामहोत्सवपूर्वक उन्होंने मुनिदीक्षा लेकर बाह्यांतर निर्ग्रथत्व के मार्ग पर पदार्पण किया । मूळजीभाई नाम मिटाकर वे भद्रमुनि नाम से घोषित किये गये ।
गुरूकुल वास में विनयोपासनापूर्वक युवा भद्रमुनि ने, एकासने के बाह्य तप एवं स्वाध्यायध्यान के आभ्यंतर तप की, 'समयं गोयम् ! मा पमायए' वाली प्रभु आज्ञानुसार क्षणभर के भी प्रमाद के बिना, अपनी पूर्वकाल की अधूरी साधना को पूर्णता की ओर ले जाने, वे अप्रमत्त भाव से प्रवृत्त हो गए।
वहाँ उपाध्याय श्री लब्धिमुनि से उन्होंने विशाल श्रुतज्ञानार्जन किया। उन्होंने प्रकरणग्रंथ, संस्कृतप्राकृत षड्भाषा व्याकरणादि, जैन-अजैन न्यायग्रंथ तथा अनेक सूत्र-आगम कंठस्थ किए । उनके इस ज्ञान-स्वाध्याय साधन एवं स्वात्मा के दर्शन हेतु ध्यानादि आराधन से उनके सारे गुरुबंधु भी प्रभावित रहे । गुरूजन एवं गुरूबंधु सभी में प्रीतिपात्र बने । उनकी स्पष्ट आत्मदर्शन पाने की खुमारी भरी लौ स्व-पर प्रकाशक बनकर सारे गुरूबंधुओ के लिए भी एक प्रेरणास्थान बनी।
उनकी यह मस्तीभरी खुमारी उनके वदन पर सदा झलकती रही। उतरे ना कबह खुमारी" वाली उनकी उन दिनों की स्थिति स्पष्ट व्यक्त करती है उनकी एक तस्वीर । ग्रंथ में संबद्ध प्रकाशित वह तस्वीर, गुरूजनों और गुरूबंधुओं बीच बेठे हुए खुमारी से भरे हुए युवा भद्रमुनि को हूबहू प्रस्तुत करती है । मुनिजनों में ऐसी खुमारी आज कहाँ ? ___ "भटके द्वार लोगन के कूकर आशाधारी, आतम अनुभव रस के रसिया "उतरै न कबह खुमारी" "आशा औरन की क्या कीजे?, ज्ञानसुधारस पीजे "आतमअनुभव रस", बस आतमअनुभव आनंद का रस ही पीने के सदा प्यासे बने रहे युवावय में सर्वसंगपरित्यागी भद्रमुनि ।
पर यह आतमअनुभव रस कैसे प्राप्त होता है ? उत्तर देते है ऐसे 'अगम पियाला' को पीनेवाले मतवाले महायोगी आनंदघन -
"मनसा प्याला, प्रेम मसाला, ब्रह्म अग्नि परजाली । तन भाठी अवटाई पीये रस, जागे अनुभव लाली ।"
अवधूत आनंदघन के समकालीन फक्कड़ संत कबीर भी भविष्य में 'सहजानंदघन' बननेवाले इस नवमुनि को यही प्रेरणा दे रहे थे :
"इस तन का दीवा करुं, बाती मेलुं जीव ।
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