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श्री सहजानंदघन गुरूगाथा .
"७वीं मंझिल के ऊपर के भाग में मूल भगवान बिराजते हैं ।... (इस सारे दर्शन के बाद, जैसा कि गुरुदेव स्वयं कहते हैं)
"जब उपयोग देह में आता है।" (इसका अर्थ, मर्म खोजने जैसा है - प्र.) बाह्यपुष्टि इस अष्टापद दर्शन की : (गुरुदेव के ही शब्दों में आगे)
"इस बात की पष्टि मझे बाद में हर्ड - मेरठ में एक पस्तकालय में। वहाँ एक श्री... दास की पुस्तिका मिली । उसमें ७२ जिनालयों का वर्णन है अष्टापद कैलास के । उसमें केवल नाम मात्र हैं। इतनी संख्या मात्र बतलाई गई है - केवल संख्या ।... ऊपरी हिस्से में सोने की खान है। कुछ रत्नमय हैं, कुछ रौप्यमय हैं । सारे अद्भुत हैं । प्रतीत... गुप्त रखा गया है। अब तो यह चायना की हद में है । दिव्य शक्तियाँ उसकी रक्षा करती हैं।
"(अष्टापद दर्शन के बाद) वहाँ कछ और अनभव भी हए ।
परंतु जो दर्शन पूर्वकाल में हुआ था उससे विशेष यहाँ था । उसमें मानो सारा विश्व जलमग्न हुआ हो और आत्मा ( उससे भिन्न)। जगतजीव बध्ध से मुक्त पर्यंत के सारे स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुए । समुदाय में (गुरूकुलवास में) रहते हुए भी जो अनुभव हुए थे उनकी पुष्टि हुई । पर यह सब विशेष था ।००० अदृश्य शक्ति सदा साथ ही रही ।" (गुरुदेव टेइप-कथन समाप्त) गुरुदेव के इस अष्टापद-गमन : अष्टापद-रहस्य-दर्शन-यात्रा पर चिंतन :
गुरुदेव द्वारा स्व-कथित (tape-recorded) उपर्युक्त अष्टापद-गमन पर कई लोगों को प्रश्न उठते हैं। ___ यहाँ ऊपर उनका कथित वाक्य : "जब उपयोग देह में आता है" गहन अर्थ और मर्म का संकेत करता है। वे आत्मलब्धि से, प्रारम्भ के कथनानुसार वहाँ प्रत्यक्ष पहुँचे हैं । साक्षात् सारा दर्शन किया है उसका यह आँखों देखा हाल है। फिर बाद में वे स्वयं इसी टेइप में अपनी इस अष्टापददर्शन की रहस्यमयी यात्रा की पुष्टि भी करते हैं मेरठ पुस्तकालय की पुस्तिका के द्वारा । अनेक ग्रंथों, पुस्तकों में अन्यत्र भी ऐसे वर्णन मिलते हैं। आत्मलब्धि द्वारा अनंत लब्धिनिधान गणधर श्री गौतम स्वामी का अष्टापद पर पधारना 'अष्टापदाद्रौ गगने स्वशक्त्या' आदि अनेक स्तोत्रों-संदर्भो से स्पष्ट और प्रसिद्ध हैं।
गुरुदेव का भी ऐसी 'स्वशक्तियुक्त' और गगनविहार आदि लब्धि के द्वारा अष्टापद-गमन और प्रत्यक्ष दर्शन, इस काल में भी संभव है। ___उन्होंने गुरुकुलवास के अनुभवों में महेसाणा चातुर्मास में किया हुआ पूर्वकथित अष्टापद दर्शन अनुभव एक है । उनका यह अनुभव यहाँ वे ही इस टेइप के अंत में पुष्ट करते हैं । उसकी विशेषता बतलाते हैं । अदृश्य शक्ति का सदा साथ रहना भी वे स्पष्ट करते हैं। उनके ये स्वयं-प्रमाणित अनुभव पूज्या माताजी ने भी हमारी प्रश्न-पृच्छाओं के उत्तर में प्रमाणित किये हैं। अतः हमें यह स्पष्ट प्रतीत
हा
जलमग्न विश्व का आदि मनु द्वारा दर्शन श्री जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य 'कामायनी' मे तुलनीय : 'ऊपर जल था, नीचे चल था । एक तरल था, एक सघन ॥"
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