Book Title: Sahajanandghan Guru Gatha
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 98
________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा . श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, रत्नकूट, हम्पी : जहाँ आहलेक जगाई एक परम अवधूत आत्मयोगी ने ! उन्मुक्त आकाश, प्रशांत प्रसन्न प्रकृति, हरियाले खेत, पथरीली पहाड़ियाँ, चारों ओर टूटे-बिखरे खंडहर और नीचे बहती हुई प्रशमरस-वाहिनी-सी तीर्थसलिला तुंगभद्रा-इन सभी के बीच, 'रत्नकूट' की रत्न-गर्भा पर्वतिका पर, गिरि-कंदराओं में छाया-फैला यह एकांत आत्मसाधन का आश्रम, जंगल में मंगलवत् । कुछ वर्ष पूर्व की बात है। मध्यान्तराल में दूषित बनी हुई इस पुराण प्राचीन पावन धरती के परमाणु बुला रहे थे उसके उद्धारक ऐसे एक आत्मवान योगीन्द्र को और चाह रहे थे अपना पुनरुत्थान... ! तीर्थंकर भगवंत मुनिसुव्रत स्वामी और भगवान राम के विचरण की, रामायण-कालीन वाली सुग्रीव की यह किष्किन्धा नगरी ओर कृष्णदेवराय के विजयनगर साम्राज्य की जिनालयों-शिवालयों वाली यह समृद्ध रत्न-नगरी कालक्रम से किसी समय विदेशी आततायियों से खंडहरों की नगरी बनकर पतनोन्मुख हो गई। उसीके मध्य बसी हुई रत्नकूट पर्वतिका की प्राचीन आत्मज्ञानियों की यह साधनाभूमि और मध्ययुगीन वीरों की यह रणभूमि इस पतनकाल में हिंसक पशुओं, व्यंतरों, चोरलुटेरों और पशुबलि करने वाले दुराचारी हिंसक तांत्रिकों के कुकर्मो का अड्डा बन गई ..... ! पर एक दिन ..... अब से कुछ ही वर्ष पूर्व ..... सुदूर हिमालय की ओर से, इस धरती की भीतरी पुकार सुनकर, इससे अपना पूर्वकालीन ऋण-सम्बन्ध पहचानकर आया एक परम अवधूत आत्मयोगी.... ! अनेक कष्टों, कसौटियों, अग्नि-परीक्षाओं और उपसर्ग-परिषहों के बावजूद और बीच से उसने यहाँ आत्मार्थ की आहलेक जगाई, बैठा वह अपनी अलख-मस्ती में और भगाया उसने भूत व्यंतरों को, चोर-लटेरों को, हिंसक दराचारियों को.... और यह पावन धरती पुनः एक बार महक उठी...... और .... और फिर ..... ? । फिर लहरा उठा यहाँ आत्मार्थ का धाम, आराधकों का आराम, साधकों का परम साधना-स्थान यह आश्रम-श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम : गांधी के परमतारक गुरु एवं स्वतंत्र भारत के परोक्ष स्रष्टा परम युगपुरुष "श्रीमद् राजचंद्रजी" के नाम से ! इसका बड़ा रोचक इतिहास है और विस्तृत उसके विलक्षण योगी संस्थापक का वृत्तांत है, जो असमय ही चल पड़ा अपनी चिरयात्रा को, चिरकाल के लिए, अनेकों को रोते-बिलखते, परम विरह में तड़पते छोड़कर और अनेकों के आत्म-दीप जलाकर ! "जोगी था सो तो रम गया", 'मत जा, मत जा' की दुहाई देने पर भी चल बसा अपने 'महा-विदेह' (78)

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