________________
• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
अनन्त परमात्मा तक पहुँचाने वाली यात्रा भी अनन्त ही रहती है । उस यात्रा के पथ पर यदि सद्गुरु मिल गया तो यात्री धन्य बन जाता है। दक्षिणापथ ही क्यों ? वह तो सब दिशाओं में है। इसीलिये दक्षिण में भी । दक्षिण में भी धन्य लोग हैं, पूर्व, पश्चिम और उत्तर में भी-एक-से-एक धन्य । हाँ, उनको खोजने की आवश्यकता होती है। साधक का भाग्य अच्छा रहता है तो उसे सिद्ध गुरु प्राप्त हो जाता है । इसी को कबीर ने-कछू पूरबला लेख-कहा है। पूर्व जन्म की साधना आगे बढ़ी हुई रहती है तो इस जन्म में सिद्धि शीघ्र मिल जाती है। ये संस्कार मनुष्य में ही नहीं, पशुपक्षी में भी रहते हैं । टोलियाजी ने अपनी इस कृति में आत्माराम श्वान की सुन्दर चर्चा की है। जटायु, जाम्बवान, हनुमान और काक भुशुण्डि भी तो ऐसे ही साधक थे । उदयपुर का गजराज भी इन्हीं संस्कारों का धनी था। मत्स्य, कच्छप, वराह और शेषनाग के शरीर में भी तो अनंत संस्कारवान् नारायण बैठ गये थे । वे नारायण कहां नहीं है । प्रहलाद के लिये तो खम्भे से प्रकट हो गये । धर्मराज युधिष्ठिर के साथ भी श्वान स्वर्ग तक गया था । श्वान के समान स्वामिभक्ति का आदर्श और कहां मिलेगा? इसीलिये कबीर ने कहा - "कबीर कूत्ता राम का, मोतिया मेरा नाउँ, गले राम की जेवरी, जित खींचे तित जाउँ।" कबीर राम का कुत्ता है। मोती मेरा नाम है। मेरे गले में राम की उनके प्रेम की रस्सी बँधी हुई है वे मुझे जिधर खींच कर ले जाते हैं उधर ही मैं चला जाता हूँ। शरणागत मुक्त पुरुष की भक्ति का आदर्श जैसा श्वान के हृदय में स्थापित मिलता है, वैसा अनन्य सम्भव नहीं ।
सत्य, अहिंसा और प्रेम की शक्ति अपार होती है । सब महात्मा इन्हींकी सिद्धि प्राप्त करने के लिये साधना करते रहते हैं । जिनको यह सिद्धि प्राप्त हो जाती है, वे जिन हो जाते हैं, इन्द्रियातीत भगवान हो जाते हैं, समग्र विश्व को वे पवित्र और पावन बना देते हैं । जैन महात्माओं ने भी इन क्षेत्रों में अद्भुत सिद्धि प्राप्त की । इसी सिद्धि की प्राप्ति के बाद अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा था-नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादात्सुरेश्वर-हे देवों के देव ! तुम्हारी ही कृपा से मेरा अज्ञान दूर हो गया । मुझे अपने अनन्त स्वरूप का स्मरण प्राप्त हो गया है । टोलियाजी ने अपनी साधना के इस पथ पर ऐसे जैन महात्माओं की चर्चा की है, जिनमें विश्व मैत्री स्थापित हो चुकी थी, जो समग्र विश्व को प्रेममय और पवित्र बना सकते थे । ऐसे महात्माओं के स्मरण मात्र से मन पवित्र हो जाता है। इसी पावन स्मृति को शाश्वत धारा में स्थापित करने के लिये उन प्रातः स्मरणीय आत्माओं के जीवन को अक्षर-ब्रह्म को अर्पित कर ग्रन्थ का रूप दे दिया जाता है। टोलियाजी का यह सफल प्रयास अनुशीलन करने वालों का मन निर्मल बनाने की शक्ति धारण करता है। इस ग्रन्थ को अनन्त प्रणाम ।
डॉ. रामनिरंजन पाण्डेय (हिन्दी विभागाध्यक्ष, उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद, आंध्र)
(76)