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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा .
| प्रकरण-११ Chapter-11 | जीवनमोड़ प्रदाता अकथ्य आनंदानुभवः सर्वसंगपरित्याग और गुरुकुलवास
१२ वर्ष की कठोर आत्मसाधना, अध्ययन "युवावय का सर्वसंगपरित्याग परमपद प्रदान करता है।"
- प.कृ.दे. श्रीमद् राजचंद्रजी ।
अपनी शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयंज्योति स्वरूप शुध्धात्मा के पूर्वाभ्यास के स्मृति-संस्कार युवा मूळजीभाई में एक धन्य, विरल, अलौकिक अनुभूति-वेला में जाग गए। उनके स्वयं के कथन अनुसार, यह एक अकथ्य शब्दातीत आनंदानुभव की वेला थी ।
"अपूर्व अवसर ऐसा कब रे आएगा ? कब होंगे हम बाह्यांतर निग्रंथ रे ?"
- परमपद-प्राप्ति की इस भावना हेतु बाह्यांतर निग्रंथदशा का मुनिजीवन अंगीकार करने की किसी पूर्वकालीन शुभ इच्छा को साकार करने का तब अचानक एक 'निमित' मिल गया.... 'उपादान' गहन हो फिर कहना क्या ?
अपनी १२ वर्ष की अवस्था में "मैं कौन हूँ?" (हुं कोण छ ? ) के श्रीमद्-पद ने प्रज्जवलित की हुई भीतरी लौ को अब बाहर भी प्रकाशित-विस्तारित करने की धन्य बेला आ गई । १९ वर्ष की युवावस्था में इसे चरितार्थ करने एक वैराग्य-प्रदाता असामान्य घटना घटी। ___मोहमयी नगरी मुम्बई भातबाज़ार का गोदाम..... भीतर कार्यरत युवान मूळजीभाई.... ऊपरी मंजिल से किसी अनजान माई के चांदी के बटनवाले कमीज का वहाँ गिरना..... मळजीभाई द्वारा नितांत निस्पृह निर्लोभभावपूर्वक उस अज्ञात मालिक के कमीज को एक ओर रख देना (यह समझकर कि वह स्वयं उसे ले जाएगा)..... और विपरीत-बुद्धि कमीज़-मालकिन का वहाँ आकर उनपर ही चोरी का आरोप लगाते हुए आग-बबूला हो जाना, इस निमित्त से उनके भीतर प्रश्न-चिंतन की परंपरा उठी:
क्या संसार के लोगों के ऐसे ही आरोपण-प्रतिभाव ?..... संसार का ऐसा ही स्वरूप..... ? सारे संसारी जन ऐसे ही बह रहे हैं ?..... इन सब के बीच मैं कहाँ हूँ और मैं कौन हूँ .....? "मैं कौन हूँ ? आया कहाँ से ? क्या स्वरूप है मेरा सही ?......
इस "स्व-विचार" मे डूबते हुए वे अंतस् के गहरे पानी में पैठ गए.....२ , १ "हुं कोण छु ? क्याथी थयो ? शुं स्वरूप छे मारे खरं?" - श्रीमद्जी ।
२ "जिन खोजा तिन पाईया गहरे पानी पैठ" - संत कबीर ।
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