Book Title: Sahajanandghan Guru Gatha
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 141
________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा . परिणाम ? इस भीतरी लौ का कोई प्रकाश-परिणाम ? परिणाम में देहभान छूट गया, लग गई भाव-समाधि-सहज समाधि, हो गई एक असामान्य, अलौकिक, अशब्द अनुभूति में संस्थिति, प्रकट हुआ निर्मल ज्ञान प्रकाश और..... और ज्ञान के उस आलोक में उन्हें स्पष्ट दर्शन हुआ लोकालोक का, लोक-स्वरूप का, वर्तमान-विश्व का, भरतक्षेत्र के आत्मसमाधि-मूल मार्ग से भटके हुए साधु संतों-श्रावकों-गृहस्थों सभी का । अपने इस उपर्युक्त शब्दातीत अनुभव का वर्णन करने के लिए शब्द नहीं मिलने पर वे हाथ लगे हुए चंद ही शब्दों में लिखते हैं : ".... एक उत्तम क्षण पर एक अकथ्य निमित्त पाकर भवान्तर के अभ्यास-संस्कार से गोडाउन के एकान्त भाग में स्वविचार में बैठे बैठे... देहभान छूट कर सहजसमाधि स्थिति हो गई । उस दशा में.... ज्ञान की निर्मलता के कारण इस दुःखी दुनिया का भासन हुआ । उसमें भरतक्षेत्र के गृहस्थजनों की तो क्या बात, साधु-संत भी आत्मसमाधिमार्ग से लाखों योजन दूर भटक गए दिखाई दिए.....२ यह तो हुई औरों के दर्शन की, वर्तमान विश्व के दर्शन की बात, पर अपनी ?..... अपनी दशा का भी प्रामाणिक दर्शन, आकलन, आलेखन करते हुए वे स्पष्ट लिखते हैं :- "यह आत्मा भी पूर्वआराधित समाधिमार्ग से विच्छिन्न पड़ गई दिखाई दी !" विश्वदर्शन-आत्मदर्शन की इस अप्रमत्त दशा में तत्क्षण ही उनकी आत्मखोज की प्रश्न-परंपरा और आगे फूट पड़ी कि, "तो अब मेरा मार्ग ? कहाँ जाना है मुझे ?" जिसके प्रत्युत्तर में अद्भुत, अपूर्व ऐसा एक घटस्फोट होनेवाला है ऐसे इस महाप्रश्न को स्वयं उठाते हुए इस अनुभव के अंत में वे लिखते-पूछते हैं : "मेरा मार्ग कहाँ ? मेरा मार्ग कहाँ ?" ...... और हुआ वह घट-स्फोट.... मिला इस महाप्रश्न का महा उत्तर - तत्काल प्रकट हुई एक आकाशवाणी के द्वारा : "..... यह रहा तेरा मार्ग ! जा ! सिद्धभूमि में जा !..... शरीर को वृक्षतल में रखकर स्वरूपस्थ बनकर रह जा.... । ॐ और बस । फिर तो कहना क्या ? मन मस्त हुआ तब क्यों बोले ? 'सर्वप्रदेशी आत्मा' का आनंद सागर आत्मानंद की हिलोरें लेने लगा.... यह अनुभवगम्य ज्ञानानंद शब्दों में थोड़ा ही व्यक्त होनेवाला था? उसकी अभिव्यक्ति के लिए शब्द लूले-लंगड़े असमर्थ बनकर रह गए और अनुभूति रह गई 'गूंगे के गुड़ के समान अकथ्य । ठीक ही कहा था न परमकृपाळुदेवने :३ इस ग्रंथ के चतुर्थ प्रकरण में लिखित 'आत्मकथा-आश्रमकथा' । दृष्टव्य एवं तुलनीय गुरुदेव के ही अजितनाथ चैत्यवंदन के ये शब्द : "अजित शत्रु-गण जीतवा, अजितनाथ प्रतीत, विलोकुं तुझ पथ प्रभो ! यूथ-भ्रष्ट मृग-रीत । ५ पूर्वोक्त चतुर्थ प्रकरण-लिखित 'आत्मकथा-आश्रमकथा' । (121)

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