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. श्री सहजानंदघन गुरूगाथा .
"जो पद श्री सर्वज्ञ ने देखा ज्ञान में, कह सके ना उसे श्री भगवान भी ! उस स्वरूप को अन्य वाणी तो क्या कहें ? अनुभव-गोचर मात्र रहा वह ज्ञान ही ।"
(अपूर्व अवसर) परमकृपाळुदेव की भाँति मस्त महायोगी आनंदघन जी भी उस अनुभवगान की महिमा गाते हुए कहाँ अघाते है ? - थकते हैं ? यथा "अनुभव ! तू है हेतु हमारो....." "अनुभवनाथ को क्यों न जगावे ?" इत्यादि (आनंदघन पद्यरत्नावली)
यहाँ अनुभव-संप्राप्त युवान मूळजीभाई ने इस अनुभवानंद की अभिव्यक्ति शब्दातीत पाई । फिर भी अनेक पृच्छकों और जिज्ञासुओं को उन्हें कहीं कहीं, किसी संदर्भ में बाद में प्रत्युत्तरों में कहना पड़ा, जैसे -
"इस वैयक्तिक प्रश्न के स्वल्प उत्तर के सिवा अधिक लिखने का समय एवं वृत्ति नहीं है।"
"इस देहधारी को आगारवास में बसते हुए मोहमयी नगरी भात बाजार स्थित गोदाम में बिना प्रयास के १९ वर्ष की आयु में समाधि स्थिति हो गई । उसमें विश्व का स्थूलरूपेण अवभासन हुआ। भरतक्षेत्र के साधकों की दयनीय दशा देखी । अपने पूर्वसंस्कार स्मृति में उभर आए । उसके पश्चात् बद्ध से मुक्त सारी आत्माओं को नीचे से ऊपर तक देखा ।.... जो दर्शन पूर्वसंस्कारविहीनों को षट्चक्रभेदन द्वारा संभव होता है वह अनायास हुआ । उससे जाना जा सका कि पूर्व भवों में चक्रभेदन करके ही इस आत्मा का इस क्षेत्र में आना हुआ है । वर्तमान में तो स्वरूपानुसंधान ही उसका साधन है । अधिक क्या लिखू ?....."६
आगारवास में युवावस्था में आत्मसमाधि का यह अद्भुत, अभूतपूर्व, अलौकिक आनंदानुभव मूळजीभाई को "युवावस्था के सर्वसंग-परित्याग" द्वारा अणगारवास की ओर ले गया । जीवन के महान मोड़ को दे गया । सर्वसंगपरित्याग की ओर.....
इस अनुभव के बाद, आकाशवाणी-आदेश के अनुसार वे स्वरूपस्थ बनने उस सिद्धभूमि की खोज के लिये तत्पर बने । इस हेतु संसारत्याग कर बाह्यांतर निपँथ-प्रवज्या ग्रहण कर वनगमन की उन्होंने परिवारजनो से आज्ञा मांगी।
परन्तु इस वर्तमान काल में असम्भव-सी जंगल में ऐसी घोर तपस्याभरी निग्रंथ मनिदीक्षा के लिये वे अनुमति कैसे दे सकते थे ?
६. सद्गुरु-पत्रधारा : साध्वीश्री निर्मलाश्रीजी को लिखित पत्र क्रमांक 14: दि. 28-2-1970 ।
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